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अध्व॑र्यो॒ऽअद्रि॑भिः सु॒तꣳ सोमं॑ प॒वित्र॒ऽआ न॑य। पु॒नी॒हीन्द्रा॑य॒ पात॑वे ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अध्व॑र्यो॒ऽइत्यध्व॑र्यो। अद्रि॑भि॒रित्यद्रि॑ऽभिः। सु॒तम्। सोम॑म्। प॒वित्रे॑। आ। न॒य॒। पु॒नी॒हि। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से उक्त विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अध्वर्यो) यज्ञ को युक्त करनेहारे पुरुष ! तू (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् के लिये (पातवे) पीने को (अद्रिभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) सोमवल्ल्यादि ओषधियों के साररूप रस को (पवित्रे) शुद्ध व्यवहार में (आनय) ले आ, उससे तू (पुनीहि) पवित्र हो ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - वैद्यराजों को योग्य है कि शुद्ध देश में उत्पन्न हुई ओषधियों के सारों को बना, उस के दान से सब के रोगों की निवृत्ति निरन्तर करें ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रकारान्तरेणोक्तविषयमाह ॥

अन्वय:

(अध्वर्यो) यो अध्वरं यज्ञं युनक्ति तत्संबुद्धौ (अद्रिभिः) मेघैः। अद्रिरिति मेघनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१०) (सुतम्) निष्पन्नम् (सोमम्) सोमवल्ल्याद्योषधिसारं रसम् (पवित्रे) शुद्धे व्यवहारे (आ) (नय) (पुनीहि) पवित्रय (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (पातवे) पातुम् ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्वर्यो ! त्वमिन्द्राय पातवे अद्रिभिः सुतं सोमं पवित्र आनय, तेन त्वं पुनीहि ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - वैद्यराजैः शुद्धदेशोत्पन्नौषधिसारान् निर्मायैतद्दानेन सर्वेषां रोगनिवृत्तिः सततं कार्या ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - वैद्यराजांनी पवित्रस्थानी उत्पन्न झालेल्या औषधांचा रस काढून तो इतरांना द्यावा व सदैव रोगांची निवृत्ती करावी.